कर्म
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थात् हमारा अधिकार कर्म करने का है,इसके फल की चिंता करने का नहीं,ऐसा करने से हम कर्म के शुभ अशुभ फल से मुक्त हो जाएंगे और योगी होकर ईश्वरत्व में मिल जाएंगे, गीता के इस श्लोक से कर्म का परिचय देना श्रेयस्कर है।
कर्म शब्द की उत्पत्ति हज़ारों वर्ष पहले ऋग वेद से हुई थी,जिसका विस्तार रूप हमें भगवद गीता में मिलता है, जहां श्री कृष्ण, गांडीवधारी अर्जुन को गीता के ज्ञान के रूप में कर्म की विशेषता बताते हैं,कर्म का कई पुराणों में भी उल्लेख है।
कर्म का ज्ञान दरअसल मन के आवरण को हटाने का काम है ,और इसी आवरण को हटाने के लिए हम निरंतर कार्य करते हैं,क्योंकि हमारा मन संसार का सबसे बड़ा पुस्तकालय है और यहां की पुस्तकों का अध्ययन तभी संभव है जब हम नियमित कार्य करते रहें।
अगर हम इसका एक और पहलू देखें तो सामाजिक दृष्टिकोण से कर्मा एक और महत्व लिए हुए है,हमारा किसी भी व्यक्ति के प्रति बर्ताव हमें कहीं ना कहीं किसी अन्य स्रोत से वापस मिल ही जाता है,उदाहरण के तौर पर,यदि हम किसी के साथ बहुत बुरा बर्ताव करते हैं तो हो सकता है वो हमारे साथ वैसा बर्ताव ना करे,लेकिन कोई दूसरा व्यक्ति उस से भी बुरा बर्ताव हमारे साथ कर सकता है,कर्म की प्रधानता हर तरफ है हम जैसा कर्म करेंगे वैसा ही हमें फल भी मिलेगा।
इसलिए हमें हमेशा अपने बर्ताव अथवा दूसरों के प्रति व्यवहार बहुत ही सोच समझकर रखना चाहिए,या हम ये कहें कि अगर हमें दूसरों से अपने प्रति अच्छे व्यवहार की कामना है तो उनके प्रति भी अच्छा व्यवहार करें,एक और कहावत है कि “जैसी करनी वैसी भरनी ” अर्थात् हमारे कर्म का प्रभाव हमें ही देखना है,हम जैसा कर्म करेंगे वैसा ही फल भी भोगना पड़ेगा।
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